दास्तान-ए-वस्ल
न जाने कितनी शब-ए-हिज़्र के बाद,
वो खूबसूरत शाम-ए-वस्ल आयी थी...
मुझसे मिलने की तड़प उसको भी थी,
वो घर पर झूठ बोल कर आयी थी...
मेरी पसंद याद थी उसको,
वो काला सूट पहन कर आयी थी...
फ़रेबी रंगों से अदावत उसको भी थी,
वो बस आँखों में काज़ल लगा कर आयी थी...
मुझे रिझाने के लिए उसने बाल खोले थे,
वो होंठों पर दिलकशी सजा कर आयी थी...
मेरे ज़ायके की भी फ़िक्र थी उसको,
मेरे लिए आलू के परांठे बना कर लायी थी...
बारिशों में मेरे संग भीगना था उसको,
वो जान बूझ कर छाता घर छोड़ कर आयी थी...
एक बेंच पर हाथ पकड़ के बैठे थे हम,
कुछ देर बस वो आँखों से बतलायी थी...
जबीं को छू लिया था उसके लबों ने मेरे,
न जाने कहाँ से उसके चेहरे पर हया छायी थी...
कुछ इस कदर लिपटी थी मेरे ज़िस्म से वो,
जैसे सदियों से इस लम्हे को वो तड़पती आयी थी...
कुछ दूर तक साथ चले थे सड़क पर हम,
वो मेरा हमसफ़र होने की चाहत लेकर आयी थी...
मुझसे फ़िर से दूर जाने का दिल नहीं था उसका,
इतनी मुश्किलों के बाद जो ये मुलाकात आयी थी...
मुझसे फ़िर से मिलने का वादा कर गयी वो,
जो एक पुराने वादे को निभाने उस रोज़ मिलने आयी थी...
और फ़िर मेरा अलारम बजा और मैं उठ गया,
हाँ, वो मुझसे बस ख्वाबों में मिलने आयी थी...
Really nice.
ReplyDeleteYou are getting better and better with Urdu words.
You should start putting their meanings too, at the end of your poems or I say nazm.
thank you very much for your advice...
DeleteI'll definitely go with it...
regarding this one..
शब- night
हिज़्र- distance
वस्ल- meeting
अदावत - hate
जबीं - forehead